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"नमस्कार दोस्तों! आपका स्वागत है 'नयी दिशा' चैनल पर। आज के वीडियो में हम बात करेंगे उस अनमोल कहानी की, जिसने हमें सीखाया है कि जीवन में हार जाना मात्र एक आवाज नहीं है, बल्कि एक नई दिशा की शुरुआत हो सकती है। तो चलिए, तो बिना किसी वक्त बर्बाद किए, चलिए शुरू करते हैं!" पुराने मध्य भारत मे एक रियासत हुआ करती थी,रियासत की बड़ी रानी की गौतम बुद्ध के प्रति बहुत निष्ठां थी. उस रियासत के महाराज देवराज की दो रानियाँ, सुरुचि और सुनिधि थी.
राजा देवराज की पहली पत्नी सुरुचि थी,जिसका स्वाभाव किसी साध्वी की तरह था.वो गौतम बुद्ध को अपना आराध्य मानती थी और उनके बताए मार्ग पर चलने की कोसिस करती है.उनके साथ उनका बेटा वीर भी खेलता रहता. लेकिन देवराज का पूरा ध्यान अपनी दूसरी पत्नी सुनिधि के ऊपर ही रहता.वो देखने मे बहुत ज़ादा खूबसूरत थी. इसी खूबसूरती की विलासता मे महाराज खोए रहते.राजमहल की ज़ादातर तमाम सुख सुविधाए दूसरी पत्नी सुनिधि और उसके बेटे सुमंत को ही मिला करती. दोनों ही पत्नियों के राजदूलारो की खिलखिलाहट से पूरा महल जगमग रहता. रियासत के लोगो को भी पता चल चुका था, की उन्हें होने वाला राजकुमार मिल चुका है. राज्य के लोग अक्सर सोचा करते की भविष्य मे राज गद्दी पर कौन बैठेगा, तो इस पर ज़ादातर लोगो का मत तो सुरुचि के पुत्र वीर के ऊपर ही था की भविष्य के राजा वहीं होंगे, क्योंकि धर्म और नीती के अनुसार बड़े पुत्र को ही राज गद्दी मिलनी चाहिये.
लेकिन समय की लकीरो को कुछ और ही मंजूर था.देवराज की पहली पत्नी सुरुचि का स्वाभव,बड़ा शांत और न्याय संगत था.वो न्याय धर्म और बौद्ध धर्म की बातें किया करती.माँ की संगत पाकर बेटा वीर भी उसी स्वाभव का हों गया था. वीर अब बड़ा हों रहा था उसका स्वाभव ऐसा हों गया की उसे जो भी मिलता वो भी माँ की तरह संतोष कर लेता.समय का चक्र चलता है और एक दिन रियासत का दरबार सजा हुआ था. उसी दिन भावी राजकुमार के नाम की घोषणा भी की जानी थी.सभी इस बात को लेकर आत्मविश्वासी हुए पड़े थे की होने वाला राजकुमार वीर ही होगा.महाराज अपनी पत्नी सुनिधि के साथ, सिंघासन पर बैठे हुए थे. महाराज छोटे बेटे सुमंत को दुलार रहे थे.
वहीं वीर अपनी माँ सुरुचि के साथ दरबार मे बैठा हुआ था.सभी पुरोहितो ने वीर की माँ को बता दिया था की आज राजबरबार मे वीर के राज तिलक की पूजा है उसे तैयार करके लाना.वीर की माँ सुरुचि ने भी बड़े दुलार से अपने बेटे को तैयार किया और ईश्वर के सामने प्रार्थना की और माथा टिकवाया.
महल मे शंख बजने शुरू हुए. पुरोहितो ने वीर का नाम भी लिया. बालक वीर सौम्या अंदाज़ मे पिता की गद्दी की तरफ बढा. और अपने पिता का आशीर्वाद लिया.पिता आशीर्वाद देने के लिये हाथ उठाते की दूसरी रानी सुनिधि ने पीछे धकेल दिया. वीर की आँखो से आंसू गिरने लगे. भरे राज दरबार मे गुस्से से लाल, रानी सुनिधि ने वीर की कलाई को मोड़ दिया था.उन्हें सिंघासन पर अहुँचने से रोक दिया. फिर सुनिधि ने अपने कड़े शब्दों और सख्त आवाज़ मे कहा की तुम इस सिंघासन और महाराज की गोद मे बैठ नहीं सकते.सिंघासन मे बैठने वाला काबिल हों या ना हों वो चहेती रानी का पुत्र ही होना चाहिये. तुम दासी के बराबर वाली रानी के पुत्र हों.
सिंघासन पर मेरा पुत्र सुमंत ही बैठेगा. और जो सिंघासन पर बैठेगा जनता उसी को राजकुमार मान कर आदर सम्मान देगी. तुम जाओ अपनी माता के पास और बुद्ध की सेवा करो. मेरे रहते तुम्हे आत्म सम्मान कभी नहीं मिल सकता. जाओ पहले अपना भाग्य बदल कर आओ राजकुमार बनने के लिये तुम्हे मेरी कोक से जन्म लेना पड़ेगा.
यह सब सुनकर पूरा राज दरबार हक्का बक्का रह गया.सबको आश्चर्य भरी नजरो से महाराज देवराज की ओर देखें जा रहे थे की महाराज कुछ बोल क्यों नहीं रहे.
लेकिन महाराज, बोलते भी क्या वें नजरें झुकाए बैठे थे क्योंकि उनकी आँखो और मन पर तो रानी सुनिधि की खूबसूरती और विलासता का पर्दा पड़ा हुआ था.
ऐसे मे भला वो रानी का विद्रोह कैसे कर सकते थे. अगर वो रानी का विद्रोह करते तो उनकी विलासता भरी राते कैसे रंगीन होती खूबसूरत जिस्म का आनंद लेने से वंचित हों जाते.वीर को अपनी सौतेली माँ की बातो से ज़ादा बुरा. अपने पिता के चुप रहने का लगा.
कुछ देर बाद वो राज महल के बाहर चला गया. संध्या आरती का समय हों चला था. वीर की माँ सुरुचि ने वीर को अपने पास बुलाया. वीर का चेहरा देख कर वो घबरा गई. वीर ने उनसे कहा, की माँ! पिता जी हमारे साथ ऐसा क्यों करते है, अब हमारा क्या होगा, क्या मुझे कभी किसी का मान सम्मान प्राप्त नहीं हों पाएगा.
जवाब देते हुए वीर की माँ ने अपनी ऊँगली से मंदिर की तरफ इशारा किया, यह कमरा कुछ दूरी पर था. और इसमें महात्मा बुद्ध की प्रतिमा (मूर्ति) रखी हुई थी.
वीर ने इशारा करते हुए पूछा, वहाँ क्या है माँ?जवाब देते हुए माँ बोली, वो महात्मा बुद्ध है वहीं तुम्हे सिद्ध बनाएंगे. उनकी शरण मे जाओ बेटा.
“बुद्धम शरणं गच्छामी”ये पंक्ति सुनते ही वीर ने बहुत अच्छा महसूस किया. सुरुचि बोली, बेटे! तुम्हारे लिये इस सिंघासन से भी कहीं बड़ा और आगे का सिंघासन बना हुआ है. इसलिए इस सिंघासन लालसा व मोह त्याग कर उस बड़े सिंघासन को प्राप्त करो.ज़ब तुम उस सिंघासन पर बैठोगे तो लेकिन उसे पाना इतना आसान नहीं.जीवन के उस सिकघासन तक तुम्हे महात्मा बुद्ध की शिक्षाए लेकर जाएंगी. लेकिन वीर को अब भी ये समझ नहीं आरहा था माँ आखिर किस तरह के सिंघासन की बात कर रही है.
जो राज सिंघासन से भी कहीं बड़ा है. उसके कानो मे तो अभी भी सौतेली माँ के ताने गूंज रहे थे.की वो अभागा है. लेकिन वीर की माँ ने देर नहीं की और उसे बुद्ध की मूर्ति के सामने लाकर खड़ा कर दिया और कहा की, अब सिर्फ महात्मा बुद्ध ही तुम्हारा कल्याण करेंगे तुम उन्ही के बताए मार्ग पर चलो.
उनकी शक्षाओं का अनुसरण करो. तुम्हे पता चल जाएगा की जीवन का असली सुख कहाँ है. वीर ने माँ से सवाल किया, की माँ! क्या बुद्ध का स्थान पिता से भी बढ़ कर है.वीर की माँ ने मुस्कराते हुए कहा, की महात्मा बुद्ध सबसे ऊपर है. माँ की इस बात से वीर ने प्रेरित होकर कहा की,माँ अबसे मै बुद्ध जी की गोद मे ही बैठूंगा, उन्ही के बताए मार्ग व विचारों का पालन करूंगा. मै कठिन से कठिन साधना करके उन्हें प्रसन्न करूंगा. इनकी शिक्षाओं को अपने जीवन मे उतारूंगा. वीर ने बड़े दृढ निश्चय से कहा की देख लेना माँ, एक दिन बुद्ध, मुझे अपनी गोद मे जरूर बैठाएंगे. रानी सुरुचि अपने बेटे की इन मासूम बातो को सुन कर हैरान थी. माँ ने वीर को गोद मे उठाया और कहा की पूरे मन से बुद्ध की बातो का अनुसरण करो. वीर भी गोद से उतरते हुए जवाब दिए. की आज से मेरे आराध्य बुद्ध हों गए है. कुछ ही दिन वीर बुद्ध की रोजाना नियम बद्ध उपासना करता हुआ ध्यान मग्न होने लगा. बुद्ध अब राज महल छोड़ने का फैसला कर लिया. जो लड़का कल तक अपनी माँ के पल्लू मे छिपा घूमता रहता था वो आज महल छोड़ कर जंगल जाने का फैसला लें रहा है. इतने बड़े फैसले और जीवन परिवर्तन से सभी हैरान थे और माँ को भी चिंता हो रही थी.
माता पिता को प्रणाम कर वीर अब बुद्ध ज्ञान लेने जंगल की ओर निकल गया. महाराज देवराज को भी अपनी गलती का एहसास होने लगा. लेकिन अब भी वो कुछ ना कर पाए. वीर बुद्धम शरणम गच्छामी शब्दों का निरंतर जाप करता हुआ अपने पथ पर निकल गया. कोसो दूर पहुँचने के बाद वीर की मुलाक़ात एक बौद्ध भिक्षु से हुई . वो एक कुटिया मे रहा करते थे. वहाँ उनके कुछ शिष्य भी थे.वीर ने बौद्ध भिक्षु से ज्ञान माँगा. और कहा की उन्हें बुद्ध से मिलना है. इसके जवाब ने बौद्ध भिक्षु ने महात्मा बुद्ध की कहानी बताते हुए कहा. की ख़ुद को जान लेना ही बुद्ध को जान लेना है. लेकिन फिर भी वीर ने बुद्ध से मिलने की ज़िद्द नहीं छोड़ी. तब बौद्ध भिक्षु ने कहा तुम अभी आराम करो मै कल सुबह तुमसे बात करूंगा. पूरी रात गुजर गई और वीर बुद्धम शरणम गच्छामी का जाप करता रहा. सुबह हुई तो वीर ने बौद्ध भिक्षु से फिर सवाल किया
भिक्षु ने जवाब मे कहा की अभी मेरी एक अंगूठी खो गई है. उसमे मेरी जान बसती थी, उसे खोज दो फिर मिलवाता हूं. वीर पूरे मन से उस अंगूठी को खोजने मे लग गया. सुबह से रात हों गई. लेकिन अंगूठी नहीं मिली. फिर बौद्ध भिक्षु ने वीर को दिया लेने के लिये कुटिया के अंदर भेजा. वहाँ पहुँच कर वीर ने देखा की अंगूठी तो अंदर ही संभाल कर रखी हुई है. यह दृश्य देख कर वीर को बहुत दुख हुआ. उसने बौद्ध भिक्षु से कहा. की ज़ब आपने अंगूठी को अंदर ही रखा हुआ था तो आपने मुझसे बाहर क्यों तलाश करवाया. इसका जवाब देते हुए बौद्ध भिक्षु बोले की ठीक इसी तरह बुद्ध भगवान भी तुम्हारे अंदर विराजमान है, फिर भी तुम उन्हें बाहर क्यों खोज रहे हों.
ख़ुद को मोह सम्मान लालच बुराली, अपमान, क्रोध क्रूरता ईर्षा जैसे भावनाओं से मुक्त कर दो. किसी की बातो का बुरा मानना, क्रोध करना और किसी भी प्रकार लालसा मन से त्याग दो.बस इतना ही करना फिर देखना, बुद्ध तुम्हे तुम्हारे अंदर ही मिल जाएंगे.इसके बाद वीर, ज़ब यह भी समझ गए की बुद्ध एक साधारण पुरुष से कैसे महात्मा बुद्ध बने थे तब इसका उनके मन पर बहुत प्रभाव हुआ वह बहुत प्रेरित हुए.वीर ने अब गहरे ध्यान ने डूब कर बुद्ध की उपासना आरम्भ कर दी.जैसे जैसे वीर का ध्यान गहरा होता गया, उसी तरह वीर को आत्म ज्ञान की प्राप्ति होने लगी. एक वक़्त ऐसा आया की वीर की सारी चाहते मर गई, वीर के मन से सभी लालसाए, खत्म हों गई. वीर को अद्भुत आनंद का एहसास हों रहा था. लम्बे वक़्त तक नियम बद्ध तरीके से ध्यान करते रहने से उन्हें आत्म ज्ञान की प्राप्ति हुई थी. अब वीर के मुख का अद्भुत तेज देख लोग उन्हें महा संत कहने लगे. यह बात कुछ समय बाद मध्य रियासत तक पहुँच गई की पर्वत की शिला मे कोई बड़े प्रतापी तेजस्वी बौद्ध भिक्षु ध्यान मे मग्न रहते है.राजमहल की तरफ से उन्हें बुलावा भेजा गया. रियासत की हालत ठीक नहीं चल रही थी.क्योंकि महाराज का दूसरा बेटा विलासता मे बर्बाद हों चुका था. सुनिधि का हुस्न व खूबसूरती भी उम्र के साथ ढल चुका था. वहीं दूसरी ओर वीर की समृद्धि दूर दूर तक फैलती जा रही थी. एक दिन था ज़ब वीर को सिंघासन पर बैठने के लायक नहीं समझा गया था.एक दिन और आया, बौद्ध भिक्षु के रूप ने वीर ने राजमहल मे कदम रखा. प्रजा की आँखो मे आंसू भी थे. और सम्मान भी. महाराजा और सुनिधि हाथ जोड़े पछतावे के आंसू रो रहे थे.वीर की माँ के कानो मे भी बच्चे वीर की बातें साफ साफ गूंज रही थी. बौद्ध भिक्षु रूपी वीर ने सबसे पहले महात्मा बुद्ध की प्रतिमा को प्रणाम किया और कहा की दूसरों की सेवा से बड़ी कोई विलासता नहीं.कोई भी सिंघासन कोक से नहीं बल्कि काबिलियत से तय होता है.वीर ने राज सिंघासन का त्याग कर दिया. और त्याग करने के लिये मंदिर रूपी कमरे की ओर चलने लगे.वहाँ वीर को देखने वाले लोग महसूस कर पा रहे थे की जैसे कोई शांति की मूर्ति चल रही हों.बुद्ध की शरण मे जाकर एक साधारण सा बालक, वीर सिद्ध पुरुष बनकर लौटा था.दक्षिण भारत मे आज भी यह कहा जाता है की वीर को बुद्ध मंदिर की ओर जाते देखा था सबने,पर वापस आते कभी नहीं देखा गया. ज़ब मंदिर के भीतर गए तो वहाँ पर बस भिक्षु वस्त्र ही मिले थे. कहा जाता है वह सिद्ध हों चुके थे उन्होंने बुद्ध की शरणों मे शरण लें ली थी.इस कहानी से हमें सीखने को मिलता है की कर्म, भाग्य से कहीं बड़ा होता है को परिस्थितियों को बदल देने की क्षमता रखता है.बुरा कर्म धीरे धीरे मनुष्य से एक दिन सब कुछ छीन लेता है मन का चैन सुख शांति धन सम्पदा वैभव सम्मान प्रतिष्ठा. बुरा कर्म ग़लत आदतें एक दिन मनुष्य का जीवन नर्क बना देती है.इस कहानी से हमें यही सीखने को मिलता है की ईश्वर सभी के अंदर इसकी खोज स्वयं मे करें. ईश्वर की मौजूदगी का एहसास जरूर होगा. जीवन मे कोई पांप ना करें हमेशा मदद करें ओर इंसनीयत को ज़िंदा रखे.
     
 
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